Sunday, June 3, 2012

अंतिम यात्रा


शहर की गली से होकर,
सजी धजी नए कपडे पहने,
आराम से लेटी एक यान पर,
वह तय करने जा रही है अपनी 
अंतिम यात्रा

पीछे एक शांत जुलूस है ,
शांति के बीच एक दो स्वर उठते हैं,
पड़ोस वाली सिन्हा आंटी कहती हैं,
"बड़ी कुशल गृहणी थी,
सारा दिन बच्चों के पीछे और
घर के कामो में लगी रहती थी".
रुमाल से नम हुई आँखों को पोछती,
पाण्डेय जी की पत्नी कहती हैं,
"पति का भी बड़ा ख्याल रखती थी".
और भी तारीफों के शब्द,
लोगो के समुद्र रूपी ह्रदय से,
मोतियों की तरह निकल रहे हैं.
और वह आँख मूंदे,
गहरी नींद में सोई,
तय करने जा रही है अपनी-
अंतिम यात्रा
गली से गुजरते जुलुस को,
निहारती छतो पर लोगो की भीड़-
सोचती है,
वह कितनी खुशकिस्मत होगी,
जिसके पीछे लोगो का हुजूम चला है.
और वह ख़ुशी और दुःख से परे,
लौट जाती है अतीत में,
जयादा पीछे नहीं,
बस यही कोई छः घंटे पहले...
कुशल गृहणी का फ़र्ज़ निभाते हुए,
वह रोज के कामो में लगी थी,
अचानक तेज़ हवा चली थी,
छत पर कपडे रखे हैं,  सूखने के लिए.
इस बात का ख्याल आते ही,
वह सरपट सीढियाँ चढ़ी थी.
हवा में उड़ते हुए बेटे की कमीज़ को,
उसने अपने हाथो में थामा था,
तभी छत से गुजरता हुआ बिजली  का तार
नीचे आ गिरा था,
हवायें चलनी बंद हो गई,
आखो के आगे अँधेरा छा गया,
सब कुछ बिलकुल शांत, स्थिर...
 .......
 ..............
बच्चे स्कूल से वापस आये,
खुद ही खाना निकाला और खाया.
बेटी ने एक बार याद भी किया,
"ये मम्मी पता नही कहाँ चली गई है"?
"अरे सिन्हा आंटी के यहाँ गई होगी".
बेटे ने टी. वी. ऑन करते हुए कहा.
शाम को जब पति घर आये,
आँफिस को  भी संग लायें,
ब्रीफ केश से फ़ाइल निकलते हुए,
चहरे पर गुस्सा तैर रहा था.
बच्चो को टी. वी. के पास बैठा देख
पत्नी पर झल्लाएं,
"पता नहीं मैडम बच्चो को अकेला छोड़
कहाँ सैर करने गई हैं"?
बच्चो ने टी. वी. बंद किया,
और अपनी अपनी किताबे खोल-
चुप चाप बैठ गए.
सब अपने अपने काम में लग गए,
पर सब के जेहन में वही थी
और वह यम के इंतज़ार में छत पर पड़ी थी.