Monday, September 17, 2012

मेट्रो स्टेशन की सीढियाँ चढ़ते हुए




मेट्रो स्टेशन की सीढियाँ चढ़ते हुए
अकसर एक बुढ़िया मिल जाती थी
चेहरे पर जिसके समय ने जालें बुन दिए थे
बाईं आँख में उसके एक मोती था
जिसको आसुंओं की लगातार बहती धारा
धोते रहती थी
वह बिना कुछ कहे
बिना कोई गुहार लगाये
आने जाने वाले मुसाफिरों के सामने
अपने कांपते हुए हाथ फैलाये,
खड़ी रहती थी
...........
.................
........................
बहुत दिनों बाद
मेट्रो स्टेशन की सीढियाँ चढ़ते हुए
देखा तो
बुढ़िया  वहां नहीं थी
फटी मैली साड़ी  में लिपटी
एक और औरत थी
गोद में बच्चा
सामने दूध की खाली बोतल
बुढ़िया नहीं थी
पर मुसाफिरों के सामने फैले
हाथ वही थे
आँखों में आँसू वही थे
चेहरे पर मज़बूरी वही थी

Monday, September 10, 2012

Running in the rain

Running in the rain,
to burnout some weight,
to hide some tears,
to overcome some fear,
Mixing water with body sweat,
leaving behind some foot steps.

Running in the rain,
to burnout some weight,
to be as light as dark cloud,
that floats in the blue sky.
my heart beats on the rhythm-
of frog & cricket sound,
my eyes sees pearls of droplet-
suspended from leaves
& I think my life should be
like that,
Short but beautiful.
and when I die
People might say,
"It should me there
for some more time".
                                            - Ravi Kumar    

Friday, August 31, 2012

कहानी

कुछ सपनों से ली हैं,
कुछ यादो से ली हैं ,
और कुछ ख्यालों से ली हैं। 
कभी किसी हमसफर से सुनी, 
तो कभी अख़बारों के पन्नों से आई हैं।
कितनी कहनियाँ  हैं छिपी इस दिल में,  
मगर मजबूर ये जुबां,  
जिसपर शब्द चढ़े हैं टेढ़े मढ़े से, 
खुद में उलझे और अपनी जगह से  फिसलते।
कहानियां मचलती हैं बाहर आने को 
और ये दिल तलाशता है, 
एक ऐसी विश्व  भाषा, 
जो शब्दों के बोझ  से मुक्त हो,
और वो कहानी हर इन्सान तक पहुचे।।।

                                          - रवि कुमार

Sunday, June 3, 2012

अंतिम यात्रा


शहर की गली से होकर,
सजी धजी नए कपडे पहने,
आराम से लेटी एक यान पर,
वह तय करने जा रही है अपनी 
अंतिम यात्रा

पीछे एक शांत जुलूस है ,
शांति के बीच एक दो स्वर उठते हैं,
पड़ोस वाली सिन्हा आंटी कहती हैं,
"बड़ी कुशल गृहणी थी,
सारा दिन बच्चों के पीछे और
घर के कामो में लगी रहती थी".
रुमाल से नम हुई आँखों को पोछती,
पाण्डेय जी की पत्नी कहती हैं,
"पति का भी बड़ा ख्याल रखती थी".
और भी तारीफों के शब्द,
लोगो के समुद्र रूपी ह्रदय से,
मोतियों की तरह निकल रहे हैं.
और वह आँख मूंदे,
गहरी नींद में सोई,
तय करने जा रही है अपनी-
अंतिम यात्रा
गली से गुजरते जुलुस को,
निहारती छतो पर लोगो की भीड़-
सोचती है,
वह कितनी खुशकिस्मत होगी,
जिसके पीछे लोगो का हुजूम चला है.
और वह ख़ुशी और दुःख से परे,
लौट जाती है अतीत में,
जयादा पीछे नहीं,
बस यही कोई छः घंटे पहले...
कुशल गृहणी का फ़र्ज़ निभाते हुए,
वह रोज के कामो में लगी थी,
अचानक तेज़ हवा चली थी,
छत पर कपडे रखे हैं,  सूखने के लिए.
इस बात का ख्याल आते ही,
वह सरपट सीढियाँ चढ़ी थी.
हवा में उड़ते हुए बेटे की कमीज़ को,
उसने अपने हाथो में थामा था,
तभी छत से गुजरता हुआ बिजली  का तार
नीचे आ गिरा था,
हवायें चलनी बंद हो गई,
आखो के आगे अँधेरा छा गया,
सब कुछ बिलकुल शांत, स्थिर...
 .......
 ..............
बच्चे स्कूल से वापस आये,
खुद ही खाना निकाला और खाया.
बेटी ने एक बार याद भी किया,
"ये मम्मी पता नही कहाँ चली गई है"?
"अरे सिन्हा आंटी के यहाँ गई होगी".
बेटे ने टी. वी. ऑन करते हुए कहा.
शाम को जब पति घर आये,
आँफिस को  भी संग लायें,
ब्रीफ केश से फ़ाइल निकलते हुए,
चहरे पर गुस्सा तैर रहा था.
बच्चो को टी. वी. के पास बैठा देख
पत्नी पर झल्लाएं,
"पता नहीं मैडम बच्चो को अकेला छोड़
कहाँ सैर करने गई हैं"?
बच्चो ने टी. वी. बंद किया,
और अपनी अपनी किताबे खोल-
चुप चाप बैठ गए.
सब अपने अपने काम में लग गए,
पर सब के जेहन में वही थी
और वह यम के इंतज़ार में छत पर पड़ी थी.

Wednesday, March 28, 2012

कदमो की मंजिल- रास्ते

सपनो के पीछे भागता इंसान,
जितना मंजिल के करीब जाता है,
मंजिल उससे उतनी दूर होती जाती है.
कदम फिर भी आगे बड़ते हैं,
इंसान की मंजिल जो भी हो,
कदमो की तो एक ही मंजिल है-
रास्ते...
रास्ते जो उसे जीवन का
एहसास करते है,
रास्ते जो उसकी कड़ी परीक्षा
लेते हैं,
और एक विशवास जागते है,
जब तक इंसान है,
उसके सपने हैं,
मंजिल है,
और उस तक पहुचने को-
रास्ते हैं,
और जब तक कदम चलते हैं,
इंसान सही मायनो में जिन्दा है.

Saturday, March 3, 2012

एक कहानी लिखूं

एक कहानी लिखूं 
नानी की परियों वाली 
कहानी लिखूं 
या
नन्ही हाथो ने जो बनाये थे 
वो रेत के महल लिखूं
एक मासूम सी कहानी लिखूं

एक कहानी लिखूं 
वो गुजरा हुआ कल लिखूं 
या ठहरा हुआ पल लिखूं 
या 
उसकी पहली नजर लिखूं  
या पहले प्यार का पहला 
नजराना लिखूं
एक प्रेम कहानी लिखूं 

एक कहानी लिखूं 
वो शहर लिखूं 
अनगिनत सपने लिखूं 
या 
गाड़ियों का शोर और 
मंजिल के  पीछे भागते 
इन्सान लिखूं
आकाँक्षाओं से भरी 
एक कहानी लिखूं

Thursday, January 19, 2012











देखा है मैंने, 
शब्दों को नन्हीं हाथो में जाते हुए. 
दायें बायें, आगे पीछे, 
मुड़ते हुए.
एक आकर लेते हुए. 
हाँ देखा है मैंने, 
शब्दों को पानी पे तैरते हुए...